- अमृतांज इंदीवर
2009 में सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया। केंद्र व राज्य सरकारें जो भी खर्च आयेगा उसे वहन करेंगी। 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को कक्षा 8 वीं तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बन गया है। अब माता-पिता का दायित्व बन गया है कि अपने बच्चों को स्कूल भेजें। सरकार को बच्चों के घर से 1 किमी की दूरी में स्कूल की व्यवस्था करनी पड़ेगी। बच्चों को न तो अगली कक्षा में जाने से रोका जायेगा, न ही स्कूल से निकाला जायेगा, न उसे स्कूल या बोर्ड की परीक्षा अनुत्र्तीण किया जायेगा। 40 बच्चों के पढ़ाने के लिए दो प्रशिक्षित शिक्षक होंगे। निःशाक्त, मंदबुद्धि बच्चों के लिए अलग से ट्रेंड शिक्षक की व्यवस्था की जायेगी। शिक्षक जनगणना, आपदा और चुनावी ड्यूटी के अलावा किसी कार्य में नहीं लगेंगे।
जबकि तल्ख सच्चाई है कि बिहार में साक्षरता दर के आंकड़े शैक्षणिक कुव्यवस्था, बदइंतजामी, और गैर-जिम्मेवार पदाधिकारियों और स्कूल समितियों की स्वार्थपरता की वजह से योजनाओं की लूट मची है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की बुनियाद कमजोर हुई है। इधर, शिक्षा का व्यावसायीकरण तेजी से हुआ है। बिना पैसे का ज्ञान नहीं। शिक्षा भी धनार्जन के लिए। सक्षम और संपन्न लोग शहरों में और निजी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने लगे हैं। गांव के, किसानों के बेटे सरकारी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। सरकारी विद्यालयों में पठन-पाठन की स्थिति बहुत ही खराब होती जा रही है। गुरुजी गुरु कम, कर्मचारी और अभिकर्ता अधिक बन गये हैं। सरकारी स्तर पर भी गुरु की महत्ता को कम करने की साजिश चल रही है। क्योंकि सरकार ने शिक्षकों को शिक्षण कार्य से ज्यादा सर्वे, वितरण आदि कार्यों में लगा दिया है। वे खिचड़ी, साइकिल, पोशाक और छात्रवृति योजनाओं का लेखा-जोखा रखने व राशि वितरण में उलझे रहते हैं। इसी का नतीजा है कि सामाजिक उत्सव के दौरान साइकिल, पोशाक और छात्रवृति राशि वितरण के दौरान गुरु जी को गाली-गलौज व मारपीट तक सहना पड़ा। गुरु और शिष्य का रिश्ते टूटते जा रहे हंै। विद्यार्थी भी शिष्ट व अनुशासित नहीं रहे। अभिभावक भी बच्चों को गुरु के महत्व की शिक्षा नहीं दे रहे हैं। विनोबा ने कहा है कि पढ़ना एक गुणा, चिंतन दो गुणा, आचरण चार गुणा होना चाहिए, ताकि शिष्ट और सभ्य समाज बनाया जा सकता है। बिना ज्ञान के जीवन सूखे रेगिस्तान की भांति है।
मुजफ्फरपुर जिले के मोतीपुर प्रखंड स्थित ब्रह्मपुरा मध्य विद्यालय और उच्च विद्यालय में छात्रवृŸिा मद में 200 व साइकिल योजना में 500 रुपये की गड़बड़ी शुरू हुई, तो सैकड़ों छात्र-छात्राओं एवं अभिभावकों ने स्कूल परिसर में बवाल मचाया। अंत में पुलिस को बुलानी पड़ी, तब राशि का वितरण हुआ। सरैंया प्रखंड के गोपालपुर नेउरा स्थित मध्य विद्यालय में आसपास की महिलाओं ने हाथ में लाठी, डंडे और मुसल से शिक्षक-शिक्षिकाओं पर हमला बोला। किसी तरह शिक्षक भाग कर व कमरे में छुप कर अपनी जान बचायी। पारू प्रखंड स्थित धरफरी उच्च विद्यालय समेत लगभग सभी विद्यालयों में गाली-गलौज, व मारपीट हुई। चांदकेवारी उर्दू विद्यालय(मकतब) में खिचड़ी बनाने को लेकर विद्यालय की शिक्षा समिति के सचिव, अध्यक्ष और कुछ छुटभैये नेताओं ने ताला जड़ दिया, जिससे पठन-पाठन प्रभावित हुआ। नालंदा जिले के एक स्कूल की छात्राओं ने साइकिल राशि के लिए शिक्षक की जमकर धुनाई की। कई जगह गोली चली, तो कई स्कूलों के फर्नीचर जलाये गये।
कुल मिलाकर सामाजिक उत्सव के बहाने असामाजिक कार्य किये गये। सरकार ने राशि वितरण का जो तरीका अपनाया, उसने गुरु व शिष्य की परंपरा को तार-तार कर दिया। अभिभावक भी कम दोषी नहीं हैं। एक तो सरकार ने राशि बंटने के समय यह घोषणा की कि छात्रों की उपस्थिति 75 प्रतिशत होनी चाहिए, दूसरी ओर अभिभावकों ने चंद पैसे की खातिर अपने बच्चों के संस्कार व शिष्टता को गलत दिशा में मोड़ने में लगे रहे। सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ट पत्रकार संतोष सारंग कहते हैं कि विद्यालय अब शिक्षा का मंदिर नहीं रहा। अब तो शिक्षक बन गये हैं रसोईया और बच्चे कक्षा से ज्यादा कटोरी पिटते रहते हैं। संपन्न व ज्यादातर शिक्षकों के बच्चे भी निजी स्कूल में पढ़ते हैं। सरकारी स्कूल में गरीब के बच्चे पढ़ रहे हैं तो चिंता किसे होगी? गुरु व शिष्य का रिश्ता योजनाओं केे कारण खराब हो रहा है। कुछ स्थानीय राजनीति के कारण भी स्थिति गड़बड़ होती जा रही है। सरकार को छात्रवृति, पोशाक और साइकिल राशि का वितरण किसी दूसरी एजेंसी को सौंपना चाहिए।
शत्-प्रतिशत गुणवत्तपूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने वाला तंत्र के नुमाइंदों को अपने दायित्वों का निर्वहन करना होगा। केवल बड़े-बड़े स्कूल भवन और योजनाओं से शिक्षा का मशाल नहीं जल सकता। शिक्षकों की नियुक्ति, उनके प्रशिक्षण और कक्षा में उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। शिक्षकों के कार्य-दशाओं, उनके रहन सहन पर ध्यान देना होगा। जनगणना, चुनाव ड्यूटी, योजनाओं के क्रियान्वयन, शिक्षकों पर दोष मढ़ने की प्रवृति से बचते हुए ग्रामीण शिक्षा के विकासात्मक परिभाषा को गढना होगा। कंप्यूटर शिक्षा, अंग्रजी शिक्षा, नैतिक शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा देते हुए रोजी-रोटी से जोड़ना होगा। शिक्षा का विविधिकरण पर जोर देते हुए मौलिक व मानवीय मूल्यों के साथ उद्यमशीलता का पोषण करना होगा। शिक्षा विभाग का यह दायित्व बनता है कि शिक्षकों को अप-टू-डेट रखने के लिए नियमित सभा, संगोष्टी, सेमिनार व कार्यशालाएं आयोजित करे। इसके लिए सरकार के साथ-साथ आम-आवाम को भी अपने-अपने इलाकों में स्कूल की स्थितियों पर पैनी नजर रखनी पड़ेगी। तब ग्रामीण भारत में सर्वत्र जलेगा शिक्षा का लौ और सुशिक्षित होगा समाज।
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