- अनिल प्रकाश
केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्यािओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन.तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वस काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर.शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा ऐक्शोन प्लाबन बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्री य नदी ही घोषित कर दिया। मनो पहले यह राष्ट्रींय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह.जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता हैए वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगाको निर्मल रखने के लिए देश की कृषिए उद्योगए शहरी विकास तथा पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह बहुत आसान नहीं होगा। केवल रिवर फ्रंट बनाकर उसकी सजावट करने का मामला नहीं है।
दरअसलए ष्गंगा को साफ रखनेष् या ष्क्ली न गंगाष् की अवधारणा ही सही नहीं है। सही नारा या अवधारणा यह होनी चाहिए कि ष्गंगा को गंदा मत करोष्। थोड़ी बहुत शुद्धिकरण तो गंगा खुद ही करती है। उसके अंदर स्वसयं शुद्धिकरण की क्षमता है। जहां गांगा का पानी साफ हो वहां से जल लेकर यदि किसी बोतल में रखें तो यह सालों साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डालकर देखा तो पाया कि चार घंटे के बाद हैजे के जीवाणु नष्टा हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई यह समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्लाज करने से या भैसों के नहाने या गोबर करने से गंगा या अन्या कोई नदी प्रदूषित होती है तो यह ठीक उसी प्रकार हंसने की बात होगी जैसे कोई शहरी आदमी जौ के पौधे को गेहूं का पौधा समझ बैठे या बाजरे के पौधे को मक्काप या गन्नेप का पौधा समझ बैठे। गंगा के संबंध में मोदी सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के अफसर और मंत्रिगण जो घोषणाएं कर रहे हैंए उससे तो ऐसा ही लग रहा है।
कुछ साल पहले आगरा में यमुना नदी में तैर कर नहा रही लगभग 35 भैंसों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। और भैंस वालों ने कई दिन बाद बड़ी मुश्किल से भैंसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्रीो के मालिक या शहरी मल.जल बहाने वाले म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के अधिकारी पुलिस के निशाने पर कभी नहीं रहे।
गंगा तथा अन्यह नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल.कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि बताते हैं कि गंगा के प्रदूषण में इंडस्ट्री यल एफ्लूएंट सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेबदार है। यह आंकड़ा विश्वाास करने योग्यर नहीं है। दूसरे बात यह कि जब कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता हैए तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ.साथ नदी के स्वीयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्टल कर देता है। नदी में बहुत से सूक्ष्मव वनस्प्ति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेनषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैंए गंदगी को सोखकर ऑक्सी जन मुक्तअ करते हैं।
इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तुक भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्यत नदियों में भी जगह.जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटरए कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव.जन्तुे या वनस्पंति जीवित नहीं बचता। क्याज उद्योगोंए बिजलीघरों का गर्म पानी जहरीला कचरे को नदी में बहाने पर सख्तीव से रोक लगेगीघ् क्याक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार उद्योगों के मालिकोंए बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिए सख्तं कानून बनेंगे और उसे मुस्तैरदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगीघ्
गंगा के तथा अन्यम नदियों के प्रदूषण का बड़ा कारण है खेती में रसायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बहकर नदी में पहुंच जाते हैं तथा जीव जन्तुबओं तथा वनस्पसतियों को नष्टच करके नदी की पारिस्थंतिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिए नदियों को प्रदूषण मुक्तत रखने के लिए इन रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बंद करके पूरी राशि जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। और अंततरू रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी।
जैविक खेती में उत्पाोदकता का कम नहीं होती हैए बल्कि अनाजए सब्जीक तथा फल भी जहर मुक्त और स्वालस्य्को वर्द्धक होते हैं। इसमें सिंचाई के लिए पानी की खपत भी बहुत घटती है और खेती की लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ाता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।
शहरों के सीवर तथा नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करके साफ पानी नदी में गिराने के लिए बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा के बगल के क्लांसदृ1 के 36 शहरों में प्रतिदिन 2ए601ण्3 एमएलडी गंदा पानी निकलता हैए जिसका मात्र 46 प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है।
क्लायसदृ2 के 14 शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी एफ्लूएंट निकलता है। जिसका मात्र 13 प्रतिशत ही साफ करके गिराया जाता है। गंगा के किनारे के कस्बों तथा छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती। शहरी मलजल तथा कचरा ऐसी चीजें हैंए जिसे सोना बनाया जा सकता है। देश के कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लगाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्यं नदियों के सभी शहरों.कस्बोंज में किया जा सकता है। अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तै दी की सख्तीह से जरूरत है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा नदी गंगा में मिलती है। वरुणा शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती है। क्यां प्रधानमंत्री का ध्यागन इस पर गया हैघ् अगर न देखा हो तो जाकर देख लें।
गंगा या अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ों करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी हैए जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक सांस्कृओतिक जीवन इनसे जुड़ा है। गंगा पर विचार के साथ.साथ गंगा में मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में विचार करना जरूरी है। आठ राज्योंं की नदियों का पानी प्रत्य क्ष या अप्रत्यकक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी में तथा अन्यक स्था नों पर बांध और बराज बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आयी है। गंगा के प्रदूषण का यह भी बहुत बड़ा कारण है। बांधों और बराजों के कारण नदी की स्वायभाविक उड़ाही ;डी.सिल्टिंगद्ध की प्रक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गई है और बाढ़ तथा कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है। हिमायल में हर साल लगभग एक हजार भूकंप के झटके रिकॉर्ड किये जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खेलन होता रहता है। बरसात में यह मिट्टी बहकर नदियों के माध्यसम से खेतोंए मैदानों तथा गंगा में आता है। हर साल खरबों टन मिट्टी आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।
1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्काह बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्काट बराज बना सिल्टग की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह.फरक्काो से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्र्भाव दिखता है।
फरक्काह बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू.मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती हैए जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्ता हो गई। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगालए बिहार और उत्तनर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों.लाख मछुआरों के रोजगार समाप्तट हो गए।
इसलिए जब गडकरी साहब ने गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू कीए तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक हैए लेकिन बराजों की श्रृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझबूझ की बात नहीं है। इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा और लेने के देने पड़ जाएंगे। आज से 32 साल पहले 1982 में कहलगांव ;जिला दृ भागलपुर क्ष्बिहारद्वद्ध से गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। जन प्रतिरोध के कारण 1990 आते.आते गंगा में चल रही जमींदारी और पूरे बिहार के 500 किलोमीटर गंगा क्षेत्र तथा बिहार की सभी नदियों में मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर मुक्त कर दिया गया था। गंगा मुक्ति आंदोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया और लाखों लाख लोग उसमें सक्रिय हुए थे। आज भी वह आग बुझी नहीं है। आग अंदर से सुलग रही है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गई तो बंगालए बिहार और उत्तपर प्रदेश में यह ठंडी आग फिर से लपट बन सकती है।
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