संतोष सारंग/बेतिया
बिजली की किल्लत झेल रहे बिहार के लिए बेतिया के
ज्ञानेश पांडे और रत्नेश यादव उम्मीद की किरण बन कर उभरे हैं. चंपारण की
धरती पर फैले अंधेरे को चीरने के लिए इन दोनों युवाओं ने अथक प्रयास किया
है. बेतिया जिले के मझौलिया प्रखंड के बैठनिया गांव के निवासी ज्ञानेश के
प्रयोग की चर्चा विदेशों तक हो रही है. हस्क पावर सिस्टम के जरिये सुदूर
देहाती इलाकों में धान की भूंसी से बिजली पैदा कर अंतर्राष्टीय एशडेन
अवार्ड 2011 हासिल कर बिहार के गौरव को बढाया है. अगस्त में आइबीएन 7 ने भी
ज्ञानेश को इस काम के लिए ‘रियल हीरो’ अवार्ड से सम्मानित किया है. बिजली
विहीन गांवों को रोशन करने की उनकी पहल अब रंग लाने लगी है. ज्यादा दिन
नहीं हुए हैं, जब उन्होंने धान की भूंसी से बिजली पैदा करने की सोची. केवल
चार साल के भीतर ही चंपारण के करीब 350 गांवों में हस्क पावर सिस्टम
परियोजना को अमली जामा पहना दिया गया. पहला प्लांट तमकुआ गांव में लगाया
गया. संयोग से तमकुआ का अर्थ होता है ‘अंधकार भरा कोहरा’ और इस तरह अंधेरे
को भगाने के संकल्प के साथ ज्ञानेश व रत्नेश बिहार के नजीर बन गये. तमकुआ
की आशा देवी कहती हैं कि अब हमलोगों की जिंदगी बदल गयी है. हमारे बच्चे अब
देर रात तक पढते हैं. ज्ञानेश ने जिन गांवों को अपने प्रयोग के लिए चुना,
उन गांवों में कल तक अंधेरे का साम्राज्य था. गांव के लोग लालटेन व ढीबरी
युग में जीने को मजबूर थे. बल्व की रोशनी उनके नसीब में नहीं थी. कई
पीढियां ढीबरी की टिमटिमाती लौ में ही अपने भविष्य को गढने में लगे रहते
थे. आइआइटी की पढाई पूरी करने के बाद ज्ञानेश अमरीका चले गये. प्रयोगधर्मी
ज्ञानेश को अमेरिका की नौकरी अच्छी नहीं लगी. वे नौकरी छोड कर अपने गांव
लौट आये और अपनी परियोजना को मूर्त रूप देने में लग गये. उन्होंने हस्क
पावर सिस्टम प्रा. लि. की स्थापना की. ज्ञानेश ने इस प्रोजेक्ट को 15
अगस्त, 2007 को शुरू किया. सबसे पहले पश्चिम चंपारण के तमकुहा में पहला
गैसीफायर प्लांट की स्थापना की. कुछ ही दिनों में गांव के लोगों को बिजली
मिलने लगी. मात्र चार सालों के भीतर ही इस प्रोजेक्ट से धनहां, ठकराहां,
मधुबनी व भितहां प्रखंडों के तकरीेबन 30 हजार लोग लाभान्वित होने लगे. सनद
रहे कि चंपारण के इन चारों प्र्रखंडों में आज तक बिजली नहीं पहुंची. अबतक
ज्ञानेश व रत्नेश की जोडी तकरीबन 80 प्लांट लगा चुके हैं. भारी-भरकम बजट
वाली बिजली परियोजनाओं का विकल्प हस्क पावर सिस्टम बन रहा है, जो महंगी भी
नहीं है. उपभोक्ताओं को केवल 100 रुपये में छह घंटे प्रतिदिन दो सीएफएल
जलाने के लिए कनेक्श्न मिल रहा. 100 वाट के लिए 300 रुपये खर्च करने पडते
हैं. इस प्रोजेक्ट से उर्जा की क्षति भी कम होती है और पर्यावरण के हिसाब
से भी अनुकूल है. रत्नेश यादव बताते हैं कि वर्ष 2003 में मैं पिता की
मृत्यु के बाद अपने गांव लौटा तो सबसे पहले बिजली की किल्लत का सामना हुआ.
यह मुझे उर्जा के क्षेत्र में कुछ अलग करने को प्ररित किया. ज्ञानेश को इस
काम के लिए 2010 में संकल्प पुरस्कार, पीटीइसीएच अवार्ड समेत करीब 10
अंतरराष्टीय पुरस्कार मिले. रत्नेश बताते हैं कि अभी बिहार में कई ऐसे
क्षेत्र हैं, जहां बिजली पहुंची ही नहीं है. उनकी कंपनी का लक्ष्य वहां तक
बिजली पहुंचाना है. बता दें कि गैसीफायर चावल की भूंसी को लोहे के बने
गैसीफायर के ऊपर से डाल कर कम ऑक्सीजन की उपस्थ्तिि में जलाया जाता है,
जिससे कार्बन का उत्सर्जन नहीं के बराबर होता है. इस पर पानी डालने से
प्रोडयूसर गैस बनती है, जिससे जेनसेट को चलाया जाता है. यह जेनसेट 40 केवीए
से लेकर 60 केवीए तक की जरूरत के अनुसार लगाया जाता है. रत्नेश कहते हैं
कि हमलोगों को एक ऐसी तकनीक की तलाश थी जो सस्ती व किफायती हो और गांव की
व्यवस्था से मेल खाती हो. अंततः हमने बिजली बनाने के लिए ‘बायोमास
गैेसिफिकेशन’ तकनीक को अपनाने का फैसला किया. आज इन दोनों युवाओं के प्रयास
से तमकुआ जैसे कई गांवों की जिंदगी ही बदल गयी है. यहां के लोगों को
रोजगार भी मिल रहे है, क्योंकि इस प्लांट में स्थानीय लोग ही काम करते हैं.
ईंधन के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली धान की भूंसी की राख का उपयोग
अगरबŸाी बनाने में की जा रही है. धान की खेती के लिए चर्चित इस इलाके के
लोग बेकार समझी जाने वाली धान की भूंसी फेंकते नहीं हैं. इसे गैसीफायर
प्लांट को बेच कर अतिरिक्त पैसे भी कमा लेते हैं.
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