एक जर्मन महिला भारत आती हैं. वह यहां की महिलाओं से मिलती हैं. भारतीय कल्चर व वेस्टर्न कल्चर को एक साथ मिलाकर वह यह दिखाना चाहती हैं कि आपका यानी भारतीय कल्चर ही अच्छा है. यहां की साड़ी अच्छी है. यहां का पहनावा अच्छा है. बेवजह यहां की लोग अपनी संस्कृति को छोड़ पश्चिमी कल्चर को अपना रहे हैं. वह यही संदेश देना चाहती हैं इस फिल्म के जरिये.
होटल से चलने के बाद हम यह सोचते रहे कि हजारों किलोमीटर दूर जर्मनी से एक अकेली महिला कैसे भारत पहुंच गयीं. बिल्कुल अनजान शहर में. हमारे यहां की महिला को पटना भी जाना होता है, तो साथ में एक पुरुष सदस्य जरू र होता है. असुरक्षित महसूस करती हैं हमारी बहनें व बेटियां, ये डरती हैं इस समाज के सिरफिरों से. कभी-कभी उम्र में पांच-सात साल छोटा भाई भी अपनी बहन का संरक्षक बनकर बाजार या कहीं अन्यत्र जाता है. वाकई, कितना अंतर है उनकी हिम्मत और हमारी सोच में.
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के आतंकवाद, भारत की जातीय व्यवस्था, यहां का कल्चर, महिलाओं की स्थिति समेत ढेरों मुद्दों पर बातें हुईं. मेरीबेन ने बताया कि उसे भारत का कल्चर अच्छा लगता है. वह खटिया पर भी सो सकती हैं. गरीबों का भोजन कर सकती हैं. बातचीत के दौरान पता चला कि मेरीबेन को भारत के बारे में गहरी जानकारी है. दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक की संस्कृति व समाज के बारे में बहुत कुछ जानती हैं. वह हिन्दी के कुछ शब्द बोल रही थी. जैसे-पंखा, पलंग, कुरसी, चीनी, चाय, दुध, आप कैसे हैं आदि. दरअसल, वह बहुत कम बजट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का सपना लिये लीची का शहर मुजफ्फरपुर पहुंची हैं. थीम है-
संतोष सारंग
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