मेरी पहली कविता

ये कैसी हवा चल पड़ी है
धुंध में लिपटी हुई-सी
धूल-कणों में सनी हुई-सी
कालिमा की चादर ओढ़े
सनसनाती, अट्ठहास करती
मतवाली चाल चल रही है.

जीब-सी गंध है
मंद है, पैबंद है
ये असहिष्णुता की दुर्गंध है
वन चमन को मानव मन को
वातावरण और धरती तल को
दूषित करती चल रही है.

श्वास बनकर ऊंसांस भरती
रक्त-कणों में, धड़कनों को
स्पंदित करती, प्राण भरती
अब हो चली है जानलेवा
दमघोंटू और जहरीला
प्राण हरती चल रही है.

बक सिखाती इंसानों को
कहती-फिरती चल रही है
राम-रहीम हो या मुल्ला
पोंगा-पंडित हो या भुल्ला
सबके फेफड़ों को भरती
रुग्ण करती चल रही है.

ये कैसी हवा चल पड़ी है
 संसद के गलियारों से बहती
जोर लगाती, दीवारों से टकराती
राजनीति की सड़ांध लिये
अब हो चुकी है तेज हवा
दमनकारी हो चल रही है.

त्ताधीशों, धनवानों को
धर्मभीरुओं और हुक्मरानों को
चिल्लाती कहती, ऐ इंसानों
ताकत है तो बांट मुझे
हिंदू और मुसलमानों में
तुममें कभी उसमें मैं विचरता रहता हूं.

तुम्हारे स्वार्थ व ऐश्वर्य ने
मुझे और सघन किया है
धर्म व धुएं के गुबारों ने
मुझमें और जहर भरा है
अब न माने तुम इंसानों
प्राण-वायु को तरस जाओगे. ‍

- संतोष सारंग