तस्वीर लीजेंड न्यूज से साभार : रामधारी सिंह दिवाकर


दिवाकर व बदलते गांव : बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में भारतीय गांवों में बड़ी तेजी से समाजार्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए हैं, जो इक्कीसवीं सदी के आते-आते विज्ञान, संचार व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास की आयी आंधी के संपर्क में आकर यह बदलाव और तीव्रतम हो गया। कहना गलत न होगा कि इक्कीसवीं सदी के हिन्दी उपन्यासों में जो गांव उभरकर पाठकों के सामने आये हैं, वे प्रेमचंद, रेणु, श्रीलाल शुक्ल जैसे कथाकारों के गांव से काफी अलग हैं। इस समयावधि में गांव का मिजाज, उसका स्वरूप और उसकी सांस्कृतिक व परंपरागत बुनियाद अपने समय से होड़ करता नजर आता है। चेतना के स्तर पर आये उभार के कारण जहां जातीय समूहों में अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता आयी है, तो वहीं राजनीतिक सड़ांध के कारण समाज के विभिन्न वर्गों के बीच वैमनस्यता व वर्ग संघर्ष भी बढ़ा है, जो खूनी टकराव की स्थिति भी पैदा कर रहा है। अस्सी के दशक के बाद से भारतीय गांवों का चाल-चरित्र व चेहरा जितनी तेजी से बदला है कि समकालीन समर्थ साहित्यकार उससे अछूता नहीं रह सके। बदलते हुए इन्हीं गांवों की पृष्ठभूमि से जुड़े कथाकारों ने अपने कथानुभव व कथानक का हिस्सा बनाकर रचनाकर्म की विकास-यात्रा पर चल दिये। रामधारी सिंह दिवाकर का नाम ऐसे ही कथाकारों की फेहरिस्त में सबसे उपर दिखता है, जो ग्राम्य चेतना को अपनी कथा का आधार बनाकर ऐसे चरित्र गढ़ते हैं, जो गांव में बसने वाले हजारों आम-अवाम की संवेदनाओं को झंकृत करता हुआ प्रतीत होता है। उत्तर आधुनिकता का लबादा ओढ़े आज का आम आदमी नगरीय तौर-तरीके अपनाने को आकुल है। यहां तक की ग्राम्य जीवन में भी शहरीपन समा चुका है। ठेठ देहाती जीवन मूल्यों पर चोट करती अपसंस्कृति का दर्शन खेत-खलिहानों व पगडंडियों तक में हो जाता है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण के कारण ग्राम्य जीवन में तेजी से बदलाव हुआ है। टूटते-बिगड़ते रिश्तों की डोर, सामाजिक सरोकारों से विमुख हो स्व तक सीमित हो जाना, सहजीवन की वृत्तियों को भुला देना, यह क्या है? प्रगतिशील समाज का द्योतक या समाज का विघटन। समाज में तेजी से हो रहा यह परिवर्तन प्रगतिवादियों के लिए शुभ हो सकता है, लेकिन एक मजबूत सामाजिक परंपरा के लिए कमजोर करनेवाली प्रक्रिया है। आज का गांव नये रूप में आकार ले रहा है। आधुनिकता की खुली हवा में जवान होती आज की पीढ़ी के खुले विचारों के कारण गांव की आबो-हवा भी बदल रही है। नये विचारों के कारण नयी जीवन पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। इसे आप विघटन कह लें अथवा सहज सामाजिक बदलाव। कथा साहित्य इस परिवर्तन को महसूस कर रहा है और इस अपनी तरह से व्याख्यायित भी करने में पीछे नहीं है। समकालीन साहित्यकारों में रामधारी सिंह दिवाकर एक ऐसे कथा लेखक हैं, जिन्होंने गांव में हो रहे बदलाव की ऊष्मा में तपकर अपनी लेखन-कर्म को तीक्ष्ण व मुखरित किया है। दिवाकर गांव को भी जड़ तक गड़ कर जीते हैं और शहर की रफ्तार को भी पकड़ने को व्याकुल दिखते हैं।