मैं रोज सीखता हूं
हरीतिमा आच्छादित बगियों से
रंग औ' सुगंध बिखेरते गुलशन से
आम्रमंजरियों पर मंडराते भ्रमर से
निराशा-भरे जीवन में रंग भरना.
मैं रोज सीखता हूं
बारिश की निर्मल-कंचन बूंदों से
बलखाती बहती नदियों से
गंगा-गोदावरी की धाराओं से
प्यासे जन-गण-मन को तृप्त करना.
मैं रोज सीखता हूं
कंकड़ीली-पथरीली कठिन राहों से
खेतों-गांवों से गुजरती पगडंडियों से
हाकिम तक जाती चमचमाती सड़कों से
मंजिल मिलने तक बस चलते जाना.
मैं रोज सीखता हूं
चक्रवाती तूफानी हवाओं से
सागर में उठती लहरों से
हिमालय की ऊंची चोटी से
अडिग, उन्मुक्त व शांत रहना.
मैं रोज सीखता हूं
दीवारों पर चढ़ती-गिरती चीटियों से
चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना
पर्वतारोहियों के फौलादी हौसलों से
ऊपर उठना, सिर्फ ऊपर उठना.
मैं रोज सीखता हूं
अंबर की अनंत ऊंचाइयों से
धरती के चीर-धीर फैलावों से
प्रकृति में निहित असीम उर्जा से
खुद को संकुचित नहीं, विस्तृत करना.
बस नहीं सीखता हूं तो केवल
मानव रचित बेकार-बेमतलब किताबों से
सीखने के लिए चाहिए सिर्फ समझ
प्रकृति भी क्या किताबों से कम है?
- संतोष सारंग
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