----------------------------- डाॅ संतोष सारंग


कवियों की भीड़ में एक मुकम्मल कवि होना असाध्य कर्म है। कवि बनने के लिए कविताई करना तो आसान है, मगर जनता के दुख-सुख को, उनकी त्रासदी को, जीवन की जटिलताओं को, नरक भोग रहे आम-अवाम की जिंदगी में उठने वाले तूफानों को, उनकी दबा दी गयी आवाज को शब्द देना इतना आसान भी नहीं है। कवि की दृष्टि, उसकी संवेदनाएं और फिर कोमल भावनाएं जब सर्वहारा वर्ग के लोगों के साथ एकाकार होती है, तभी कविताएं जनसाधारण की ताकत बनती हैं। डाॅ संतोष पटेल की कविताएं भी जनमानस के पटल पर उतरकर उनकी मानवीय संवेदनाओं का रेशा-रेशा उघाड़ती चलती हैं। पाॅश कल्चर से जनमने वाली कविताओं एवं महानगरीय जिंदगी की टोह लेती काव्य फुलझड़ियों से डाॅ संतोष की कलम किनारा करती है। 

'कारक के चिन्ह' बहुजनवादी नजरिए का व्याकरणीय नाम वाला एक ऐसा दस्तावेज है, जिसमें उदात्त प्रेम की परिभाषा है, नफरत के उदाहरण हैं और मानवीय संवेदनाओं के विविध प्रकार हैं। यूं कहें कि संतोष पटेल का यह बहुचर्चित काव्य-संग्रह 'कारक के चिन्ह' नीच-अछूत करार दिए गये एक निरीह व्यक्ति को 'मनुष्य' बनाने की मुक्ति-गाथा है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. दिल्ली के नवजागरण प्रकाशन ने इस महत्वपूर्ण काव्य-संग्रह को छाप कर महती भूमिका निभाई है। संग्रह की सभी पचपन कविताएं अपने समय के यथार्थ से सीधे संवाद करती हुईं जनसाधारण की भाव-भूमि पर उतरती हैं। 

बहुजन समाज को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले भारतरत्न और संविधान शिल्पी बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर की वैचारिक क्रांति को कवि ने इस काव्य-संग्रह का प्रस्थान-बिंदू बनाया है। 'कारक के चिन्ह' की पहली कविता 'मैं अंबेडकर हूं' के शीर्षक से कवि की चिंता एवं उनके रचना-कर्म के उद्देश्य को सहज समझा जा सकता है। 

"मैं अंबेडकर हूं
जिंदा हूं उनमें
जो रखते हैं विश्वास
स्वतंत्रता में, समानता में और बंधुत्व में"

संविधान की आत्मा में अंकित ये तीनों शब्द 'मानवता' को बचाए रखते हैं, जिसे संक्रमणकाल के इस दौर में पूरी तरह खत्म करने का छद्म रूप से राष्ट्रीय और सरकारी अभियान चलाया जा रहा है। कवि इन पंक्तियों के माध्यम से ऐसी विनाशकारी ताकतों को चुनौती देता है।

प्रयोगधर्मी कवि डाॅ. संतोष पटेल की इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता 'कारक के चिन्ह' एक अलग ही ढांचे में रचित कविता है। कवि हिंदी व्याकरण में पढ़ाये जाने वाले कारक के सभी चिन्हों का प्रयोग करके समाज के प्रभुत्ववादी वर्गों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है। साथ ही कमजोर तबके के लोगों को आगाह करते हुए 'कारक के चिन्ह' के पीछे छुपे चालाक लोगों के चेहरे को पहचानने की सलाह देता है। 

"कर्ता 'ने'
मतलब उन्होंने
जिन्होंने सदियों से खटमल की तरह
चूसा है खून और
पकड़ कर रखा है सारे अवसर"

एक्सपेरिमेंट के जरिए विषय की गंभीरता को सहज ढंग से परोसना डॉ संतोष पटेल की खासियत है। मेहनतकशों को सिर्फ जाति की वजह से जो समाज नकारता है, उसे कवि की कलम कटघरे में खड़ा करती है और 'लौंगी भुईयां', 'दशरथ मांझी' जैसे फौलादी महामानव को प्रतिष्ठित करती है। 'कारक एक है जातिवाद' शीर्षक कविता जातीय अस्मिता की अभिव्यक्ति है।

"लौंगी भुईयां या
दशरथ मांझी जैसे लोग
जब वर्षों अकेले मेहनत कर के
बना देते हैं नहर
पहाड़ का सीना फाड़ निकाल देते हैं सड़क
तब समाज क्या कर रहा था?
मुसहर समझ देखता भी नहीं था
बड़ी जाति के नजर में वे
गुलाम हैं इंसान नहीं"

उत्पीड़ित समाज को वर्ण-व्यवस्था की जकड़न से मुक्ति दिला कर उसे बेहतर इंसान बनाने की तड़प कवि में साफ झलकती है। डॉ संतोष आम आदमी के कवि हैं। क्रूर व्यवस्था व शोषण जनित समाज की चक्की में पिस रहे लोगों के हक-हुकूक के लिए संघर्षरत आंदोलनकारी, क्रांतिदर्शी लेखक-कवि और बुद्धिजीवी के पक्ष में जब कवि संतोष की स्याही खर्च होती है, तो तानाशाह शासक निशाने पर आ जाता है। 'जनकवि वरवर राव' की अभिव्यक्ति व लेखनी को जब वर्तमान सरकार ने कैद कर ली, तो कवि ने इन शब्दों में 'विचारों' और 'कलम' की ताकत का एहसास कराया -

"बहुत मुश्किल है कलम की ताकत को नकारना
बहुत मुश्किल है विचारों को दफन करना मुश्किल है कलम को तोड़ना
एक तोड़ो हजारों पनप जाएंगे''

विचारों से ही क्रांति की चिंगारी सुलगती है, कवि का ऐसा मानना है। विद्रोही तेवर के साथ डॉ संतोष 'उलगुलान' का एलान करते हैं। उनकी बारीक नजर जंगलों के बीच जीवन-यापन करनेवाले आदिवासियों की त्रासद-भरी जिंदगी पर भी जाती है -

"जारी है आज भी वो जंग
जल-जंगल-जमीन के अधिकार के लिए
बिरसा विद्रोह की बुनियाद है जिसमें''

विद्रोही व जनकवि डॉ संतोष पटेल की कविताओं में आम आदमी की पीड़ा के बीच प्रेम की भी व्याख्या मिलती है। प्रेम निर्मल जल है', 'रंगे हाथों पकड़ा गया प्रेम करते' एवं 'प्रेमी बनो तो मांझी जैसा' शीर्षक कविता कवि के कोमल हृदय का स्पंदन है - 

"बनना है प्रेमी तो बनो
दशरथ 'मांझी' जैसा
जिनके प्रेम में दर्ज हैं कबीर के दोहे''

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"पकड़ा गया था जब रंगे हाथों
करते हुए प्रेम
शायद यही था मौसम ऋतुराज
बसंत का खिला खिला सा
खेत का खेत पीला पीला सा
मानो पियरी ओढ़े हुए से सरसों"

x.  x.  x

"सर्वव्यापी है प्रेम
सब में है उपस्थित
उन सख्त दिखने वालों में भी
जैसे नि:सृत होता है कल कल जल नदियों में, सख्त बर्फ के पहाड़ों से"

कवि विद्रोह व प्रेम की कविताओं के साथ-साथ अनेक विषयों पर अपनी भावाभिव्यक्ति दी है। बिहार के भोजपुरी और बज्जिका क्षेत्र में लौंडा नाच काफी पसंद किया जाता रहा है. लौंडा नाच में पाट खेलने वाले कलाकार और नचनिया अमूमन सामान्य परिवार से ताल्लुकात रखते हैं, जो अक्सर तंगी में ही जीवन गुजारते रहे हैं. नचनिया को किन-किन समस्याओं से जूझना पड़ता है, मलिकार का किस तरह कोपभाजन बनना पड़ता है, अपनी पूरी अदाकारी दिखाने के बाद भी डांट व अपमान के घूंट पीने पड़ते हैं, इसे एक कविता में आईने की तरह चित्रित कर देना गांव की माटी में पले-बढ़े कवि के लिए ही संभव है. भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की नाटक मंडली के कलाकार रामचंद्र मांझी को पद्मश्री की उपाधि मिलना सिर्फ भोजपुरी भाषा का सिर्फ सम्मान नहीं था, बल्कि लौंडा नाच के नचनिया को एक राष्ट्रीय पहचान भी मिली. कवि डॉ. संतोष पटेल ने 'पद्मश्री रामचंद्र मांझी' को अपनी कविता का विषय बनाकर उनके सम्मान में चार चाँद लगा दिया. 

''नहीं जानते होंगे सभी
लौंडा नाच के नचनिया को
साटा के मुताबिक एक गांव से दूसरे गांव में
प्रस्तुति के लिए
पैदल पैदल तेजी से चलते जाते हैं
मानो भादो में गंडक का पानी
भैंसालोटन से भागते हुए पिपरा पहुंच रहा हो
समय से पहुंचना इसलिए भी जरूरी   
ताकि मालिकार का कोपभाजक ना बन जाएं''

यह कविता कवि के ग्रामीण अंचल से गहरे जुड़ाव का प्रमाण है. 'छप्पन चोप का शामियाना', 'टूटे पुराने आईने में मुंह देखते और मुर्दाशंख और इंगुर का पेस्ट', 'बच्चे हुलुक-हुलुक कर देखते हैं' जैसे पद कविता को रोचक बनाते हैं. 'सखिया सावन बहुत सुहावन मनभावन ना अइले हो' गीत के बोल कविता के बीच में आकर इसे गेयता प्रदान करते हैं. 'पद्मश्री रामचंद्र मांझी' इस काव्य-संग्रह की अनूठी कविता है.

डॉ संतोष पटेल की काव्य दृष्टि सूक्ष्म व सुलझी हुई है. वे एक साथ कई जीवन जीते चलते हैं, जो विषय की विविधता के रूप में परिलक्षित होता है. वर्तमान राजनीति पर चुटीला प्रहार, कोविड-19 के दौरान आयी त्रासदी, सालभर चले किसान आंदोलन, नारी उत्पीड़न, दुष्कर्म, देशद्रोह, टेमी प्रथा आदि विविध विषयों को समेटता यह काव्य-संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है। कवि डॉ संतोष पटेल की भाषा सहज, सरल व प्रांजल है। बिंब आम पाठकों के अनुकूल उभरता है, लेकिन कहीं-कहीं व्याकरणीय दोष रह गए हैं, जो हिंदी के जानकार पाठकों को खटकेगा। यह जरूर है कि कथ्य व शिल्प की दृष्टि से काव्य की बुनावट में विविधता 'कारक के चिन्ह' को खास बनाती है।  

समीक्षक : डॉ संतोष सारंग
कारक के चिन्ह (काव्य-संग्रह)
नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली
2022/150 रुपए    

सम्प्रति : समीक्षक डॉ. संतोष सारंग एमएसएम समता कॉलेज, जंदाहा (वैशाली) में हिंदी के अतिथि सहायक प्राध्यापक हैं. पत्रकारिता के क्षेत्र में पंद्रह वर्षों से अधिक का अनुभव है.